Thursday, February 25, 2010

रंजिश ही सही - अहमद फराज

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ...
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ ।

पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो....
रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया ही निभाने के लिए आ ।

कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मुहब्बत का भरम रख....
तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ ।

एक उम्र से हूँ लज़्ज़त-ए-गिरिया से भी महरूम....
ऐ राहत-ए-जाँ मुझ को रुलाने के लिए आ ।

अब तक दिल-ए-ख़ुश’फ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें.....
ये आख़िरी शम्में भी बुझाने के लिए आ

3 comments:

  1. Same here, thanks for sharing this :)

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  2. क्या कहें... हम तो बस बारबार इन अल्फाजोंको और मेहंदी हसनसाहब की गायकी को सुनतेही जा रहे हैं और सुनते ही रहेंगे।

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